न्यूटन के गति नियम भौतिक नियम हैं जो चिरसम्मत यात्रिकी के आधार हैं। यह नियम किसी वस्तु पर लगने वाले बल और उससे उत्पन्न उस वस्तु की गति के बीच सम्बन्ध बताते हैं। इन्हें तीन सदियों में अनेक प्रकार से व्यक्त किया गया है।[1] न्यूटन के गति के तीनों नियम, पारम्परिक रूप से, संक्षेप में निम्नलिखित हैं-
- प्रथम नियम: प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में अथवा सरल रेखा में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने हेतु विवश नहीं करता। इसे जड़त्व का नियम भी कहा जाता है।[2][3][4]
- द्वितीय नियम: किसी पिण्ड के संवेग परिवर्तन की दर आरोपित बल के समानुपाती होती है तथा बल की दिशा में कार्यान्वित होती है।
- तृतीय नियम: प्रत्येक क्रिया की सदैव समान एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है।
न्यूटन के गति के प्रथम एवं द्वितीय नियम, सन १६८७ में लातिन भाषा में लिखित न्यूटन के प्रिन्सिपिया माथेमातिका से
सबसे पहले न्यूटन ने इन्हे अपने ग्रन्थ फिलोसफिऐ नतुरालिस प्रिंसिपिया माथेमातिका (सन १६८७) में संकलित किया था।[5] न्यूटन ने अनेक स्थानों पर भौतिक वस्तुओं की गति से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में इनका प्रयोग किया था। अपने ग्रन्थ के तृतीय भाग में न्यूटन ने दर्शाया कि गति के ये तीनों नियम और उनके सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम सम्मिलित रूप से केप्लर के आकाशीय पिण्डों की गति से सम्बन्धित नियम की व्याख्या करने में समर्थ हैं।