रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई (जन्म: 19 नवम्बर 1828[1] – मृत्यु: 18 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 की राज्यक्रान्ति की द्वितीय शहीद वीरांगना (प्रथम शहीद वीरांगना रानी अवन्ति बाई लोधी 20 मार्च 1858 हैं) थीं। उन्होंने सिर्फ 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं। बताया जाता है कि सिर पर तलवार के वार से शहीद हुई थी लक्ष्मीबाई।[2]

अनुक्रम

जीवनी

रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग उसे प्यार से “छबीली” कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली।[3] सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।[2]

ब्रितानी राज ने अपनी राज्य हड़प नीति के तहत बालक दामोदर राव के ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया। हालांकि मुक़दमे में बहुत बहस हुई, परन्तु इसे ख़ारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का ख़ज़ाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।[4]

झाँसी का युद्ध

1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को समर्पित भारत का डाकटिकट जिसमें लक्ष्मीबाई का चित्र है।

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।[5]

1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलतापूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली।[6]

तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें राखी भेजी थी इसलिए वह भी इस युद्ध में उनके साथ शामिल हुए। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रितानी सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रितानी जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक ख़तरनाक भी थी।[7]

चित्र दीर्घा

  • सोलापुरमहाराष्ट्र में लक्ष्मीबाई की प्रतिमा
  • रानी लक्ष्मीबाई की समाधि
  • रानी लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान, वाराणसी
  • रानी लक्ष्मी बाई उद्यान, झांसी

इन्हें भी देखें

झांसी की रानी कविता

सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर उनके यश का गान करते हुए झांसी की रानी कविता की रचना की है[8]

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,’नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

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